मराठी कविता
बहारें
कभी कोरी आँखों में खिलती बहारें
कभी कुछ पलों की है मिलती बहारें
खुली आँख है ख़्वाब आते है कितने
कभी ख़्वाब में यूँही ढलती बहारें
वहाँ जी रहें हो, सुकून मिल रहां हैं
यहाँ सांस मे जब है घुलती बहारें
समां हो रहा था ये बेताब कितना
थी नजदीकीयाँ और पिघलती बहारें
ये खुशबू सताती है कमबख़्त कितनी
यहाँ इन दिलों में, मचलती बहारें
– मानसी
Dr. Manasi Sagdeo-Mohril
0