चाँद

आजकल दिन में भी चाँद चला आता है।
कैसी बेशरमी है! न वक्त देखता है न कुछ!
बस मुह उठाकर चला आता है छत पर!
कुछ पूंछ लूं तो मुह उठाकर जवाब भी देता है!
कहता है, सुबह-सुबह आने का मजा रात में कहां?
तुम रात में नहाती नहीं हो ना!
गिले बाल लेकर छत पर भी नहीं आती!
उन बालों को झटकर कुछ बुंदे
बारिश की तरह बरसती है तो
सावन का महिना याद आता है!
और सुबह-सुबह जब तुम कपडे सुखाती हो
और धूप की पहली किरण उन बूंदों को छू कर
तुम पर धनक के रंग बरसाती है,
तब उनमें कुछ रंग मैं भी समेट लेता हूं।
शाम को कहां तुम बिंदी लगाकर,
हाथों में कलश लेकर तुलसी के पास मिलती हो
शाम को कहां तुम दौडते भागते
तितली की तरह घुमती दिखती हो
शाम को कहां अपनी उलझी हुईं
लटों को कान के पीछे डालते दिखती हो
बस …. इसीलिए चला आता हूं मुह उठाकर
कुछ देर के लिए ही सही, तुम्हे देखने,
तुम्हारी खुली आँखो से बांते करने 
जरासी बेशर्मी करने सुबह-सुबह
तुम बताओ सुबह-सुबह
तुम आसमान क्यों ताकती रहती हो?

– मानसी

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